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आलोचना

पोस्ट ट्रुथ के समय में भाषा - संदर्भ रघुवीर सहाय की कविता

राकेश कुमार


सच के बारे में अक्सर यह कहा जाता है कि सच की हमेशा जीत होती है पर यह भी कहा जाता है कि सच कभी भी स्वायत्त नहीं होता। उसके होने और उसके न होने के बीच संदर्भों की एक पूरी श्रृंखला होती है जिससे उसकी स्वायत्तता प्रभावित होती रहती है। संदर्भों के अर्थ सत्ताएँ निश्चित करती हैं। धर्मवीर भारती ने अंधा युग के प्रारंभ में विष्णु पुराण को उद्धृत किया है जिसमें कहा गया है कि - 'कपटवेष धारणमेव महत्व हेतु' जिनके नकली चेहरे होंगे केवल उन्हें महत्व मिलेगा।1 ऐसे चेहरे या मुखौटे जो सच को छुपाते हैं और छद्म रचते जनता के समक्ष; वे समाज में महत्व पाएँगे। यद्यपि विष्णु पुराण के बाद काफी समय बीत चुका है और महाभारत को भी परंतु जो नहीं बदला; वह है सत्ताओं का चरित्र। आज का युग 'पोस्ट ट्रुथ' का युग है। एक ऐसा युग जिसमें शब्दों, अवधारणाओं के वे अर्थ नहीं होते जिन्हें हम मानते चले आ रहे हैं बल्कि सत्ताएँ राजनीति, अर्थव्यवस्था, धर्म, समाज, लोकतंत्र, और मीडिया पर नियंत्रण के कारण अर्थ निश्चित करती हैं। ली. मैक्निटायर ने अपनी पुस्तक 'पोस्ट ट्रुथ' में कहा है कि Post-truth amounts to a form of ideological supremacy, whereby its practitioners are trying to compel someone to believe in something whether there is good evidence for it or not.2

कवि रघुवीर सहाय की मृत्यु दिसंबर 1990 में हो गई थी उनके जीवन-काल में यह अवधारणा भी पूरी तरह से विकसित नहीं हुई थी परंतु उनकी कविता आने वाले वर्षों का आईना बन कर आती है। वे देख पा रहे थे कि सत्ताओं का वास्तविक चरित्र क्या है? कवि रघुवीर सहाय अपने संपूर्ण कवि कर्म में सत्ताओं के छद्म, मुखौटों, मनमाने अर्थां से भरी भाषा, कपटपूर्ण व्यवहार और जनसामान्य के सपनों को कोरे नारों में बदलने वाले उद्घोषों को उजागर करने का काम करते हैं। रघुवीर सहाय का मानना है कि सत्ताओं के छद्म का माध्यम वह भाषा बनती है जिसे आम जन सहज अभिव्यक्ति भर मान लेता है। भाषा अथवा अभिव्यक्ति को मनुष्य और उसके यथार्थ जीवन से काटकर सत्ताओं ने उसका विशेष संदर्भों में ही प्रयोग किया है, जिससे भाषा और यथार्थ, भाषा और मनुष्य के बीच का अंतर बढ़ा; इसीलिए धूमिल भी इस विडंबना को मानव समाज की त्रासदी मानते हुए इसे 'भाषा की रात' कहते हैं।

"भाषा उस तिकड़मी दरिंदे का कौर है
जो सड़क पर कुछ और है
संसद में कुछ और है।"3
(भाषा की रात)

रघुवीर सहाय की मुख्य चिंता मनुष्य की चिंता है। यह मनुष्य न तो धर्म ग्रंथों में वर्णित जीव है और न ही संतों का पानी का बुदबुदा; अपितु यह मनुष्य आज का संघर्षशील आम आदमी है। जो इस मानव विरोधी व्यवस्था में अपने अधिकारों की लड़ाई लड़ रहा है और जब इस लड़ाई में आम आदमी टूटता है हारता है तो वह विरोध भी नहीं कर पाता क्योंकि -

एक दिन ऐसा आएगा रमेश किसी की कोई राय न रह जाएगी
क्रोध होगा पर विरोध न होगा -
अर्जियों के सिवाय - रमेश
खतरा होगा, खतरे की घंटी होगी
और उसे बादशाह बजाएगा - 4
(आने वाला खतरा)

वर्तमान संदर्भों में रघुवीर सहाय की यह कविता अत्याधिक प्रासांगिक हो चली है। यह एक ऐसे अंधकार से भरे समय की कविता है जिसमें अपने हालातों को लेकर जनता में असंतोष तो है पर विरोध और प्रतिरोध नहीं। कहना न होगा कि जब किसी का कोई विरोध ही न होगा तो निंरकुश सत्ताएँ हमेशा बनी रहेंगी। यदि हम दुनिया भर के फासिस्ट इतिहास को देखें तो यह बात खरी लगती है। दुनिया भर के तानाशाह को पनपने के लिए यही सही जमीन है। जनता को एक बड़े भ्रम में रखा जाता है कि उनका नेतृत्त्व करने वाला सत्ता पक्ष यदि कोई संकट आएगा तो उस खतरे की घंटी बादशाह बजा ही देगा। सत्ताओं का ऐसा केंद्रीकरण निरंकुशताओं को जन्म देता है। वैसे लोकतांत्रिक समाजों में खतरे की घंटी बजाने का काम बुद्धिजीवी वर्ग या फिर मीडिया करता है। पर जब ये दोनों भी बादशाह की खिदमत में लग जाएँगे तो जनता के लिए बहुत बड़ा खतरा है। एक ऐसा समाज जिसमें विरोध के बजाय सिर्फ अर्जियाँ ही हों उस समाज में गुलामी बहुत गहरे घर कर जाती है। याद कीजिए आजादी से पहले एक समय ऐसा ही था जब ब्रिटिश शासन को मात्र अर्जियाँ ही लिखी जाती थीं। इसी स्थिति का विरोध रघुवीर सहाय करते हैं।

रघुवीर सहाय की कविता ठोस यथार्थ को यथार्थ की भाषा में ही पकड़ने का प्रयास करती है। उन्हें इस भाषा के अतिरिक्त किसी और अन्य माध्यम पर विश्वास नहीं, इसीलिए वे अधिकाधिक उसी के पास जाना चाहते हैं। उससे भी उन चीजों को एकदम बीन-बीनकर अलग कर देना चाहते हैं जो किसी भी तरह से कुछ और होने का भ्रम दे सकती हैं। रघुवीर सहाय के सामने कविता में सबसे बड़ा संकट उस भाषा का है जिसे पा लेने के बाद एक मामूली आदमी इतना बड़ा हो जाता है कि बड़े-बड़े लोग उसे मारने को तुल जाते हैं। यह भाषा ही उस 'मामूल बोदे आदमी' की शक्ति है जो सत्ता के अत्याचार का विरोध करता है और उस भाषा को बोलना अस्वीकार कर देता है जिसे सत्ता अपने मंतव्य के लिए प्रयोग करती है। भाषा किस तरह से द्वयर्थक होकर बेमानी हो जाती है इसे रघुवीर सहाय की 'प्रश्न मंच' कविता में देखा जा सकता है।

"जब कोई सरकार नागरिकों को शांति और
समृद्धि का आश्वासन देने के लिए राजाज्ञा का
आश्रय लेती है, चौकन्ना होने का समय आ जाता है
कि इसका प्रतिलोम तो नहीं होने वाला है।"5
(प्रश्न मंच)

रघुवीर सहाय इस खतरे को अपने समय में, अपने समाज में और मनुष्य की प्रवृत्ति में उपजता हुआ देख रहे हैं। वे सत्ताओं के तिलिस्म से भली भाँति परिचित हैं। लोकतंत्र में जनता एक महत्वपूर्ण घटक है अक्सर यह कह दिया जाता है कि लोकतंत्र के चार स्तंभ हैं पहला विधायिका, दूसरा कार्यपालिका तीसरा न्यायपालिका और चौथा स्तंभ है मीडिया। पर इन चारों को उत्तदायी सीधे तौर पर जनता के प्रति होना चाहिए विशेषतः विधायिका को परंतु अक्सर जनता की याद राजनीतिक दलों को चुनावों के समय में ही आनी आती है। चार स्तंभ वाले इस लोकतंत्र में जनता की भागीदारी बहुत ही कम होती है। अक्सर चुनावों में जनता अपने प्रतिनिधि नहीं बल्कि अपने भाग्य विधाता चुन लेती है। जनता को यह कह दिया जाता है सरकार जनता का पूरा ध्यान रख रही है। रघुवीर सहाय जनता को चौकन्ना होने के लिए कहते हैं क्योंकि सरकार राजाज्ञा के माध्यम से जनता के कल्याण की योजनाएँ लाना चाहती है। इन योजनाओं का सच यह भी है कि अक्सर इनमें भ्रष्टाचार की गुंजाइश रखी जाती है। यहाँ शांति, समृद्धि और जनकल्याण के वही मायने नहीं रह जाते जोकि शब्दकोशों में दिए गए हैं। वे बदल जाते हैं। भाषा के इस 'चतुर' प्रयोग का परिणाम यह होता है जनता भ्रमित होकर फिर से अपने उन्हीं कर्णधारों को चुन लेती है। वे ऐसी भाषा को ही सार्थक भाषा मानते हैं जिसके दो अर्थ न हों और भाषा इतनी कारगर हो कि अपने लक्ष्य पर सीधी मार कर सके पर किसी और की मार का साधन न बन सके।

वर्तमान समय में रचनाकर्म अनेकानेक मानव-विरोधी स्थितियों से गुजर रहा है। ये मानव विरोधी स्थितियाँ जहाँ एक ओर तथाकथित 'आधुनिक यांत्रिक सभ्यता से उत्पन्न हैं वही निज स्वार्थरत राजनीतिक व्यवस्था भी उसकी लिए उत्तरदायी है। आधुनिक यांत्रिक व्यवस्था ने भाषा में से उन मानवीय तंतुओं का अवशोषण कर लिया है जोकि एक मनुष्य को दूसरे मनुष्य से जोड़ते थे। भाषा मानवीय ऊष्मा और विश्वसनीयता से रिक्त होती चली जा रही है। जॉर्ज स्टाइनर अपनी पुस्तक 'लैंगुएज एंड साइलेंस' में लिखते हैं - "There is a widespread intimation, though as yet only vaguely defined, of a certain exhaustion of verbal resources in modern civilization, of a brutalization and devaluation of the word in the mass-cultures and mass-politics of the age."6 आधुनिक युग में भाषाई संसाधनों का चुक जाना इस बात का संकेत करता है कि हमने अपनी भाषा का दोहन कितनी निर्ममता से किया है। विशेषतः राजनीति में अब शब्द अपने अर्थों से अलग हो चुके हैं। मीडिया भी भाषा के इस अतिरिक्त दोहन का दोषी है। ऐसे में कवि की भूमिका अत्यंत महत्वपूर्ण हो जाती है। कवि को भाषा की अर्थवत्ता को बचाए रखना होगा।

रघुवीर सहाय अपनी कविताओं में इन्हीं परिदृश्यों से पाठकों को रू-ब-रू कराते हैं। 'हिंदी' नामक कविता में उस हार की, पराजय की पीड़ा को अभिव्यक्त करते हैं जहाँ हम विजयी होकर भी विरोधियों अथवा सत्ता पक्ष द्वारा अपने पक्ष में प्रयोग कर लिए जाते हैं। यह पराजय भाव नितांत नैतिक और राजनीतिक है। वे लिखते हैं -

"अच्छे सैनिक
अपनी हार पहचान
अब वह सवाल जिसे भाषा की लड़ाई हम कहते थे
इस तरह पूछ
हम सब जिनकी खातिर लड़ते थे
क्या हम वही थे?
या उनके विरोधियों के दलाल थे
सहृदय उपकारी, शिक्षित दलाल"7

रघुवीर सहाय का आत्मसंघर्ष मूलतः हर जागृत मनुष्य का संघर्ष है। रघुवीर सहाय के लिए सार्थक भाषा वह भाषा है जिसमें भविष्य की चेतावनी दी जा सके। इस भाषा को अर्जित करने के लिए जिस साहस की आवश्यकता होती है, वह साहस, व्यक्ति को जनता से संपृक्ति और यथार्थ के प्रति निर्मम दृष्टि से प्राप्त होता है। सार्थक भाषा अपने समय की संवेदनात्मक ऊष्मा से अनुप्राणित होती है उसमें यथार्थ की कटुता दुखों और असफलताओं की कसक, संघर्ष की उर्जा और मानवीय रिश्तों की उष्मा होती है। यही वह भाषा है जो दो अर्थों से मुक्त है जो एक ओर सत्ता को चेतावनी देती है और वहीं दूसरी ओर सत्ता के तिलिस्म को चुनौती भी देती है।

रघुवीर सहाय जिस नई भाषा की माँग करते हैं वह सामाजिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक प्रश्नों को उनके मूल से उठाती है और उन प्रश्नों को सार्थक समाधानों की ओर प्रेरित करती है। सार्थक भाषा वास्तव में एक चीख है जो कि ताकत के युग में संभव नहीं, क्योंकि वहाँ न तो कविता है और न साहस -

"कविता न होगी साहस न होगा
एक और ही युग होगा
जिसमें ताकत ही ताकत होगी
और चीख न होगी।"8
(बड़ी हो रही है लड़की)

वर्तमान भारत आज जिस त्रासदी को झेल रहा है उसके मूल में यही समस्या विद्यमान है। आज सत्ताधारी वर्ग से सामान्य जनता का कोई भी संपर्क नहीं जिससे एक ओर सत्ताधारी वर्ग अपनी स्वार्थसिद्धि में रत है वहीं दूसरी ओर सामान्य जनता इस भ्रष्टाचारी व्यवस्था में मूक कर दी गई है। रघुवीर सहाय के शब्दों में वह 'मार तमाम लोगों' में परिवर्तित हा चुकी है। ब्राजील के प्रसिद्ध समाजशास्त्री पाउलो फ्रेरे इस समस्त तीसरी दुनिया के देशों की समस्या है उनके अनुसार देश दो वर्गों में विभाजित हा गया है - एक जिनके पास जुबान है, भाषा है; और दूसरे वे जिनके पास अपनी भाषा नहीं है। खामोशी की संस्कृति, विकसित देशों द्वारा उपनिवेशवादी दौर में शुरू हुई थी और अगर यह संस्कृति उनके वापस लौट जाने के बाद भी बनी हुई है तो इसका कारण यह है कि देश के सत्ताधारी 'इलीट' ने इसे जारी रखने के के लिए नानाविध कौशल का प्रयोग किया है। इसी समस्या को उठाते हुए फ्रेरे लिखते हैं : 'उपनिवेशवादी दौर की परिणति के फलस्वरूप इन समाजों का एक बुनियादी आयाम यह है कि उनकी संस्कृति खामोशी की संस्कृति के रूप में स्थापित की गई और पोसी गई। इस स्थिति में दो तहें स्पष्ट हैं - बाहरी तौर पर यह संपूर्ण निर्वासित समाज जो कि निर्देशक समाज के लिए वस्तु है - अपने निर्देशकों के सामने कभी जुबान नहीं खोल सकता। प्रभु समाज उसके लिए 'शब्द' निर्धारित (प्रिस्क्राइब) करता है। इस तरह उसे प्रभावशाली ढंग से खामोश बनाता है और इस बीच निर्वासित समाज के भी शक्ति केंद्र 'इलीट' (अभिजात) बिलकुल उसी तरीके से जनता को खामोश बनाते हैं।"9 रघुवीर सहाय इसलिए इस व्यवस्था में सजग मनुष्य की अंतिम परिणति मृत्यु मानते हैं क्योंकि सत्ताएँ उन सभी को खतरा मानकर नष्ट करती हैं जोकि उनकी व्यवस्थाओं पर प्रश्न खड़े करते हैं और उन सभी का पोषण करती है जो सत्ताओं का समर्थन बिना किसी सवाल के करते हैं। इसी वर्ग पर व्यंग्य करते हुए रघुवीर सहाय लिखते है -

"उसकी हर बात व्यवस्था से बँधी है
इससे उम्मीद है कि बहुत दिन जिएगा।"10
(बेचारा वक्ता)

इन पंक्तियों को यदि पलट दिया जाए तो अर्थ पूरी तरह से उजागर हो जाता है कि उसकी हर बात व्यवस्था से नहीं बँधी है इसलिए उसके बहुत दिन जीने की उम्मीद नहीं है। इस मानव विरोधी व्यवस्था में सत्य के पक्षधर मनुष्य को सत्ताएँ कभी जीवित नहीं रहने देती है। सत्य के पक्षधर मनुष्य को कभी 'सूरदास' (रंगभूमि) कभी 'बावनदास' (मैला आँचल) तो कभी 'रामदास' की मौत मरनी ही पड़ती है। सत्य मनुष्य को अकेला कर देता है या फिर सत्ताएँ सच के लिए आगे आने वाले मनुष्य को निरंतर अकेला कर के मारती हैं। रघुवीर सहाय अपने संपूर्ण कृतित्व में इसी अकेले किए जा रहे मनुष्य का पक्ष लेते हैं। वर्तमान समय मे सत्ता द्वारा जिस 'खामोशी की संस्कृति' को हम देख रहे हैं उसके सत्य से, यथार्थ से वे हमारा परिचय कराते हैं। -

"यह संस्कृति उसको पोसती है जो सत्य से विरक्त है
देह से सशक्त और दानशील धीर है
भड़ककर एक बार जा उग्र हो उसे तुरंत मार देती है।"11
(लोग भूल गए हैं)

धार्मिक, सामाजिक, आर्थिक या राजनीतिक सत्ताएँ एक ऐसे समाज को बनाना चाहती हैं जो यथास्थिति को स्वीकार करता रहे। सत्ताएँ कभी नहीं चाहतीं कि समाज का शोषित, पीड़ित वर्ग अपने अधिकारों के लिए आवाज उठाए। 21वीं सदी में हाशिए के समाज में उभर रहे आक्रोश और उसके प्रति सत्ताओं की प्रतिक्रियाओं को इस संदर्भ में देखा जा सकता है। आज समाज का दलित वर्ग सदियों की गुलामी, उत्पीड़न और अपमान का विरोध कर रहा है जोकि सत्ताओं में एक बेचैनी भर रहा है। इससे सत्ताएँ और अधिक बर्बर और क्रूर होती जा रही हैं।

रघुवीर सहाय की चिंता यह भी कि सत्ताएँ आम जन को अपने शब्दों और अर्थों से भरी भाषा दे रही हैं। धर्म, धर्मनिरपेक्षता राष्ट्र, देश भक्ति, विकास, चुनाव, संसद, राजनीति और जनता तक के मायने वही नहीं है जिन्हें हमने जनांदोलनों के माध्यम से जाना था। आज इन शब्दों के मायने ताकतवर वर्ग तय कर रहा है। जो लोग सत्ता पक्ष के दिए अर्थों से संतुष्ट नहीं होते हैं उन्हें यह व्यवस्था अकेला करती है और मार डालती है।

सार्थक भाषा और उसमें दृढ़ विश्वास ही असत्य और धोखे से भरी भाषा से बचा सकता है। यह भाषा न केवल वर्तमान के झूठ को समझने के लिए सहायक होगी बल्कि भविष्य के खतरों के प्रति चेतावनी भी इसी भाषा में दी जा सकेगी। इसीलिए रघुवीर सहाय सत्ता द्वारा पोषित इस खामोशी की संस्कृति के विरुद्ध दो अर्थों के भार से मुक्त भाषा की माँग करते हैं। वे कहते हैं -

"तुम्हारे हाथों
अपने विचार को बरबादी से बचाने के लिए
अपने विचार को अपनी ही तरह से कहने के लिए
रखता हूँ
और तुम्हें एक अंधी गली में फँसने के लिए
छोड़ता हूँ"12
(तुम्हारे लिए)

रघुवीर सहाय यहाँ अपने विचार को अपनी ही तरह से कहने के लिए प्रतिबद्धता की बात करते हैं। वर्तमान समय में जहाँ सत्ताएँ शब्दों के अर्थ, घटनाओं के संदर्भ, विचारों की पक्षधरता और इतिहास की प्रासांगिकता को नष्ट कर रहीं हैं वहाँ पर अपनी ही तरह से अपने विचारों को कहने का साहस वास्तव में लोकतंत्र, मनुष्यता, समाज और भाषा में अटूट भरोसे से जन्मा है। जॉर्ज ऑरवेल ने कहा था कि सार्वभौमिक धोखे के समय में सच बोलना एक क्रांतिकारी काम है। रघुवीर सहाय इसी सच को बचाए रखने का आह्वान करते हैं।

संदर्भ

1. http://www.hindisamay.com/e-content/Dharmveer-Bharati-Andhayug.pdf

2. ली मैक्निटायर, पोस्ट ट्रुथ, पृष्ठ-13

3. धूमिल, संसद से सड़क तक, पृष्ठ-105

4. रघुवीर सहाय, हँसो, हँसो जल्दी हँसो, पृष्ठ-10

5. रघुवीर सहाय, कुछ पते कुछ चिट्ठियाँ, पृष्ठ-19

6. George Steiner Language and Silence, पृष्ठ-44

7. रघुवीर सहाय, लोग भूल गए हैं, पृष्ठ-77

8. रघुवीर सहाय, हँसो हँसो जल्दी हँसो, पृष्ठ-23

9. पाउलो फ्रेरे, कल्चरल एक्शन फॉर फ्रीडम, पृष्ठ-16

10. रघुवीर सहाय, लोग भूल गए हैं, पृष्ठ-56

11. रघुवीर सहाय, लोग भूल गए हैं, पृष्ठ-48

12. रघुवीर सहाय, लोग भूल गए हैं, पृष्ठ-26


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